Friday 12 December 2014

मन को अपने क्या समझाऊँ - Poem on Humanity

वह कुछ कहता, उससे पहले
चिल्ला उठी मेरी ईमानदारी
सही खुद को, गलत उसे बताऊँ


 

वह कुछ मांगता, उससे पहले
खुसर-फुसर करने लगी सच्चाई
झूठ सब कहते, मैं क्यों शरमाऊँ


 

जुल्म हो जाय, उससे पहले
सिकुड़ गयी मेरी तरुणाई
फट्टे में टांग क्यों अड़ाऊँ


 

रुक मत, और डाल कमीने
रंगीन पानी पी तन ने ली अंगड़ाई
खुद को अब क्या कहलाऊं


 

Buy-Related-Subject-Book-beदेखते ही उसे, पहले पहल
मन नाचा, मचली तन्हाई
इस सोच पर क्यों न डूब मर जाऊं


 

बगुलों की देख चहल पहल
मेहनत की टांग लड़खड़ाई
मन को अपने क्या समझाऊँ


 

दुनिया के दोहरेपन को देख
मानवता है शरमाई
देख, सोच यही घबराऊँ


-मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Poem on Humanity, by Mithilesh in Hindi. A lot of issue, honesty, truth, character, Hard Work, Liquor,  and all related.

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