Friday 2 January 2015

गोडसे के बहाने!

पिछले दिनों से जो बात राष्ट्रीय राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चित हुई है, वह निश्चित रूप से नाथूराम गोडसे के ऊपर हो रही चर्चा ही है. नाथूराम गोडसे का प्रश्न सर्वप्रथम भाजपा के साक्षी महाराज ने उठाया और चूँकि भारत के वैश्विक ब्रांड माने जाने वाले महात्मा गांधी को अब भारत के संघी प्रधानमंत्री भी स्वीकार कर चुके हैं तो साक्षी महाराज को अपने कदम पीछे खींचने ही थे. हिंदुत्व के दुसरे मुद्दों की तरह संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों पर नरेंद्र मोदी संजय जोशी के समय से ही लगातार दबाव बना पाने में सफल रहे हैं. लेकिन, कांग्रेस की तरह मोदी को भी यह भ्रम हो गया लगता है कि देश में भाजपा और संघ के अतिरिक्त दूसरी संस्थाएं मृतप्राय हो चुकी हैं. लेकिन, लोकतंत्र और विशेषकर चुनावी राजनीति की खासियत ही यही है कि यहाँ पक्ष और विपक्ष होंगे ही. यह ठीक बात है कि आज़ादी के पहले से अब तक देश की मुख्य पार्टी रही कांग्रेस मिटने की ओर अग्रसर हो रही है, और उसका मिट जाना ही ठीक है, क्योंकि उसके ऊपर परिवारवाद का गहरा दाग लग गया है, जिसे अयोग्यता की हद तक ढोया जाना, लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है. कांग्रेस का मिटना, सिर्फ एक पार्टी या नेहरू खानदान के राजवंश के मिटने भर की कहानी ही नहीं होगी, बल्कि इसकी डोर राष्ट्रपिता कहे जाने वाले 'मोहनदास करमचंद गांधी' तक भी पहुंचेगी.

आज़ादी के बड़े नायकों में से एक माने जाने वाले महात्मा गांधी के बारे में आम जनमानस की धारणा यही बनी है कि उनकी महानता को सत्ता ने बढ़ा- चढ़ाकर देश पर थोपा है. इस बात से कई लोग सहमत नहीं हो सकते हैं, लेकिन कम से कम संघ और भाजपा से जुड़े लोगों को इस बात की More-books-click-hereघुट्टी उनके बालपन से पिलाई गयी है. इस पर बात आगे करेंगे, लेकिन यहां यह बताना सामयिक होगा कि महात्मा गांधी ने आज़ादी के तुरंत बाद कांग्रेस को खत्म करने की वकालत की थी. इस ऐतिहासिक उद्धरण को नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में लगातार उठाते रहे हैं. अब प्रश्न उन संघियों की बड़ी जमात का है, जो महात्मा गांधी के चरित्र के बारे में सरकारी नजरिये से अलग नजरिया रखते हैं और चूँकि वह काफी सक्रीय और अनुशासनप्रिय भी माने जाते हैं तो उनका प्रभाव देश के कई छोरों तक पहुंचा है. महात्मा गांधी के ऊपर संघ के स्वयंसेवक और देश के प्रधानमंत्री का यू-टर्न इन संघियों को कहीं न कहीं कुरेद रहा है. संघी, अटल बिहारी बाजपेयी से भी इसीलिए नाराज रहते थे, क्योंकि वह अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि के प्रति ज्यादा सजग हो गए थे, और विचारधारा उस छवि से दब गयी थी. नरेंद्र मोदी भी अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि चमकाने एवं दूसरी मजबूरियों के चलते गांधी को अपना तो रहे हैं, लेकिन इन सब लोगों को काबू करने में उनको भी पसीना आ ही रहा होगा. सुना तो यह भी गया है कि अपने इस्तीफे तक का दांव चलने तक की नौबत आ गयी थी हमारे नए गांधीभक्त को. खैर, जैसे-तैसे धमकी काम कर गयी और सीधे तौर पर संघ और विहिप आदि के पदाधिकारी खामोश हो गए, लेकिन अंदर ही अंदर तमाम संगठन धर्मान्तरण समेत नाथूराम गोडसे के मुद्दे को उठाने में लगे रहे.

इस मुद्दे को उठाने में जो संस्था सर्वाधिक जोर लगा रही है, वह अखिल भारत हिन्दू महासभा नामक संगठन है. वीर सावरकर के नाम से पहचानी जाने वाली संस्था का मुख्यालय केंद्रीय दिल्ली के मंदिर मार्ग पर स्थित है. भव्य भवन में आतंरिक दरारें जरूर पड़ी हैं, लेकिन इससे जुड़े लोग टीवी, अख़बारों पर नाथूराम गोडसे का यथासंभव गुणगान कर रहे हैं. मीडिया भी इस विषय को खूब कवरेज दे रहा है और संयोग देखिये कि यह संस्था धीरे-धीरे सक्रीय होने का प्रयत्न भी करने लगी है. इस संस्था में अभी के समय बड़ी गहमागहमी बनी रहती है, जो कुछ महीने पहले तक देखने को नहीं मिलती थी. मुख्यालय पर जाने के बाद नाथूराम गोडसे से इस संस्था के जुड़ाव को, उनकी प्रतिमा को, नाथूराम के साहित्य को आप आसानी से समझ जायेंगे. वर्तमान हिन्दू महासभाई लोगों में से कुछ लोग अंदरखाने महात्मा गांधी की हत्या को जायज़ नहीं ठहराते हैं, लेकिन बड़े गर्व से बताते भी हैं कि यदि नाथूराम गोडसे महात्मा गांधी को नहीं मारते तो पाकिस्तान को कथित रूप से 55 करोड़ रूपये दिया जाता और पाकिस्तान और बांग्लादेश (तब का पूर्वी पाकिस्तान) के बीच कई किलोमीटर चौड़ा रास्ता भारत सरकार को देने के लिए मजबूर होना पड़ता. तब देश की स्थिति क्या होती, यह समझा जा सकता है. यही नहीं, कई हिन्दू महासभाई आज़ादी के समय लाखों लोगों के क़त्ल-ए-आम के लिए गांधी को सीधे तौर पर जिम्मेवार ठहराते हैं. कुरेदने पर वह साफ़ कहते हैं कि आज़ादी के कई साल पहले से मुस्लिम आंदोलन देश में खड़ा हो रहा था, जिसमें गांधी की तुष्टिकरण की नीति भी काफी हद तक जिम्मेवार थी. इसके बावजूद देश के हिन्दू गांधी को अपना नेता मान कर उसके साथ खड़े रहे, जबकि मुसलमानों ने गांधी को कभी अपना नेता नहीं माना. गांधी कहता रहा कि देश उसकी लाश पर बंटेगा, इसलिए कोई हिन्दू इधर से उधर न हों. परिणाम यह हुआ कि लाखों लोग इस विभाजन के दौरान काट डाले गए.

इतिहास में इस प्रकार का वीभत्स नरसंहार कभी नहीं हुआ था. हिन्दू महासभाई इस बात पर भी रोष प्रकट करते हैं कि जब देश का विभाजन धर्म के आधार पर तय हो गया तब भी गांधी ने अपनी मर्जी चलाकर कहा कि हिन्दू-मुसलमान जहाँ चाहे रह सकते हैं और इस प्रकार गांधी की कमजोरी की वजह से यह देश आज भी हिन्दू-मुसलमान की समस्याओं से घिरा हुआ है. हिन्दू महासभा से जुड़े लोग साफ़ कहते हैं कि इस देश को गांधी का देश बताकर आम जनमानस के साथ सबसे बड़ा छल किया गया है, क्योंकि उस व्यक्ति का व्यक्तिगत चरित्र भी संदिग्ध था. अंग्रेजों ने उसे भारत के क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए तैयार किया था, और गांधी ने किया भी यही. देश की आज़ादी के असल नायकों भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस जैसे क्रांतिकारियों को इस व्यक्ति ने कभी बर्दाश्त नहीं किया. यहाँ तक कि जब सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव जीत गए थे तब इस व्यक्ति के दर्शन ने क्या किया, यह इतिहास में दर्ज है. हिन्दू महासभाई गोडसे के बहाने गांधी के चरित्र पर बात करते हुए कहते हैं कि आज़ादी के बाद भी जब देश की अधिकांश प्रांतीय समितियां सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में थीं, तब गांधी की भूमिका के चलते नेहरू प्रधानमंत्री बने और देश को मिला परिवारवाद का नासूर. हिन्दू महासभाई इस बात से बेहद रूष्ट नजर आते हैं कि यह देश एक तरफ तो भगवान राम तक को कठघरे में खड़ा कर देते हैं. उनके ऊपर एक धोबी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है और उसकी बात सुनी जाती है. इस प्रकार के लोकतान्त्रिक चरित्र वाले भारतवर्ष में गांधी की गलतियों को पूरा देश जानने समझने के बावजूद चर्चा करने से हिचकिचाता क्यों है? गांधी के दुर्गुणों पर चर्चा को अपराध कैसे मान लिया जाता है?

संघियों और हिन्दू महासभाइयों का दर्द किसी हद तक जायज भी है. महात्मा के नाम से मशहूर गांधी ने निश्चित रूप से देश के हित में भी कई काम किये, जिनमें अछूतों के उद्धार-कार्यक्रम, देश को किसी हद तक जोड़ने का कार्य, देश को संगठित करने का कार्य भी शामिल है. उनके इन कार्यों की प्रशंसा देश और समूचा विश्व करता है, लेकिन इन बातों से उनकी कमियों पर पर्दा भला कैसे डाला जा सकता है. क्या गांधी भगवान राम से भी बढ़कर इस देश में हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के एकाध कृत्यों पर तमाम सकारात्मक, नकारात्मक चर्चा लोग करते हैं, तो गांधी पर क्यों नहीं? चर्चा उनके veer-savarkar-books-kitabसत्य के प्रयोग नामक उन अध्यायों पर भी होनी चाहिए, जिसे भारतीय लोग 'चरित्र' कहते हैं. गोडसे के बहाने ही सही, गांधी के चरित्र की शिनाख्त होनी ही चाहिए, क्योंकि उन्हें राष्ट्रपिता के तौर पर देश और भावी पीढ़ी को बताया जाता है. और अपने पिता के बारे में जानने का हक तो हर एक बच्चे को होता ही है. उसका पिता किन मामलों में अच्छा है या था, कहीं वह शराबी तो नहीं था, कहीं वह औरतों का रसिया तो नहीं था और यदि था यह गर्व का विषय कैसे है? कहीं अपने आप को भगवान समझने की भूल करके उस व्यक्ति ने देशद्रोह का कार्य तो नहीं किया? देश के बंटवारे में आखिर उसकी और उसकी नीतियों की क्या भूमिका थी? प्रश्न सिर्फ नाथूराम गोडसे का नहीं है, बल्कि वह बंटवारे के बाद आम जनमानस में गांधी के प्रति उपजे रोष के प्रतीक मात्र दीखते हैं. देश बंटने के बाद गांधी की नीतियों से देश का बहुसंख्यक बेहद नाराज हो गया था और इन हालातों की जानकारी गांधी के साथ-साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को भी थी. राजनीति, विपक्ष की बातें अपनी जगह हैं, लेकिन इन तमाम प्रश्नों पर चर्चा होनी चाहिए, क्योंकि हमारे देश के लोगों को अब प्रश्न पूछना और तह तक पहुंचना सीखना ही होगा. कभी गांधी को, कभी नेहरू को तो कभी मोदी को भगवान बना देने से इस देश का भला नहीं होने वाला है, बल्कि देश का हित इसमें है कि लोग हर एक बात पर, प्रत्येक चरित्र पर पैनी नजर रखें और उसकी जीवनी की कठोर व्याख्या करें. गांधी जैसों के सन्दर्भ में इस प्रकार के प्रश्न उठाना और भी जरूरी हो जाता है, क्योंकि उनके सिद्धांतों को देश में योजनाबद्ध तरीके से थोपा गया है. प्रश्न पूछने के तरीके या माध्यम पर सवाल उठाने की बजाय उसके उत्तर, सही उत्तर की खोज होनी चाहिए. उद्देश्य तो सिर्फ सच्चाई तक पहुँचने का होना चाहिए. बेशक उसका माध्यम कोई अंगुलिमाल बने या कोई बुद्ध, कोई गांधी बने या कोई नाथूराम गोडसे! कोई संघी बने या कोई हिन्दू महासभाई!

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Nathuram Godse, Hindu Mahasabha and Characteristics of Mahatma Gandhi
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