Friday 23 January 2015

बेटियों की दुनिया: वर्तमान सन्दर्भ - Girls, Women, their current challenges and Government Plan

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी तमाम योजनाओं के साथ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की शुरुआत कर दी है. महिला एवं बाल विकास, मानव संसाधन मंत्रालय की साथ वाली इस योजना में मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष लिंगानुपात घटाने पर ज़ोर देने की बात कही गयी है. इसके अतिरिक्त लड़कियों की उत्तरजीविता और संरक्षण सुरक्षित करना और लड़कियों की शिक्षा पर काम करने का मुख्य लक्ष्य रखा गया है. भारत के नए प्रधानमंत्री का भाषण यूं तो हमेशा ही रोचक होता है, मन से वह भाषण देते Hindi is our mother languageहैं, और इस योजना के उद्घाटन-स्थल पर ब्रांड-अम्बैस्डर के रूप में बॉलीवुड का चमकदार चेहरा माधुरी दीक्षित के रूप में उपस्थित था, तो प्रभाव जमेगा ही. किन्तु इस योजना के अनेक पहलुओं को देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि आज़ादी के बाद चली तमाम आधी- अधूरी योजनाओं की तरह यह योजना भी किसी प्रकार भिन्न नहीं है. भ्रूण-हत्या, लड़कियों की शिक्षा पर तमाम बातें और कार्यक्रम हम सब बचपन से सुनते आ रहे हैं, लेकिन इस बार मन आस लगाये बैठा था कि इस योजना में ज़मीनी कारणों पर विचार किया जायेगा और लड़कियों के जन्म से लेकर उनके सशक्तिकरण तक के मूल कारणों पर अध्ययन किया जायेगा, फिर किसी कार्यक्रम की घोषणा की जाएगी. लेकिन, जैसा कि प्रत्येक सरकार के बाद होता है कि उस सरकार का फेस तो बदल जाता है, किन्तु उसके अंतर में कार्य करनेवाले लोग, नौकरशाहों की सोच नहीं बदलती है और परिणाम वही, एक ढर्रे पर चलती दुनिया और उस दुनिया के लिए एक ही ढर्रे पर बनतीं योजनाएं. इस योजना में देश भर के 676 ज़िलों में 100 चयनित जिलों को कार्यक्षेत्र बनाया गया है, जबकि 'गुड्डा-गुड्डी' बोर्ड पर, किसी ग्राम-पंचायत में लिंगानुपात के बारे में सूचनाएं लिखीं जाएँगी. इसके अतिरिक्त आम जनमानस के लिए कर्त्तव्य रूप में कुछ बातों को दुहराया गया है कि वह बच्चियों के जन्म पर उत्सव मनाएं, 'पराया-धन' की मानसिकता से वह बाहर आएं, इत्यादि इत्यादि. कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इस प्रकार की प्रतीकात्मक योजनाओं से देश की बेटियों का न तो कुछ ख़ास भला हुआ है और होने की सम्भावना भी नहीं है. तो फिर प्रश्न उठता है कि क्या इस योजना की सार्थकता शुन्य है? नहीं!

किसी भी योजना की सार्थकता इस मामले में शुन्य नहीं हो सकती है, क्योंकि वह कहीं न कहीं संवाद का जरिया तो बनती ही है. इसके साथ प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि क्या संवाद अथवा जागरूकता के अपने उद्देश्यों को इस प्रकार की योजनाएं पूरित कर पाने में सक्षम हैं? आपको फिर निराशा हाथ लगेगी और नकारात्मक उत्तर ही मिलेगा, नहीं!
कारण?

महिलाओं के अधिकारों से जुड़े अधिकांश विषयों में जागरूकता की सर्वाधिक आवश्यकता स्वयं महिलाओं को ही है. भ्रूण-हत्या और बेटी की अशिक्षा अथवा उसके बाल-विवाह में आश्चर्यजनक रूप से आपको महिलाओं की ही सहभागिता नजर आएगी, कई मामलों में पुरुषों से भी ज्यादा. इस मुद्दे पर चर्चा और स्पष्ट हो जाएगी, जब हम महिलाओं की शिक्षा और उसकी उपयोगिता पर बात करेंगे. आज लगभग प्रत्येक मध्यम-वर्ग परिवार में लड़कियां ग्रेजुएशन करती ही हैं, कुछ बीच में भी छोड़ देती हैं यह अलग बात है. और मध्यम वर्ग की ही बात कही जाए तो कई लडकियां इंजीनियरिंग से लेकर दुसरे प्रोफेशनल कोर्सेस की तरफ बहुतायत में मुड़ रही हैं. भारत का निम्न आय-वर्ग भी इस मामले में जागरूक हुआ है और उस वर्ग की लडकियां भी शिक्षा प्राप्त करने में कदम-दर-कदम आगे बढ़ा रही हैं.
प्रधानमंत्री जी, एवं 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' के निर्माताओं! इसके बाद क्या होता है, इस बात पर ध्यान दीजिये ज़रा!

तमाम शिक्षा-प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद भी, अधिकांश लड़कियां, सामजिक दबाव में जल्द ही शादी करती हैं और घर में बैठ जाती हैं. फिर उनकी शिक्षा पिछली पीढ़ी की उन औरतों से ज्यादा अहमियत नहीं रखती है, जो पांचवी पास होती थीं और दूर देश में नौकरी करते अपने पति को पत्र लिख लेती थीं. कुछेक फीसदी महिलाएं संघर्ष करती हैं और शादी के बाद भी नौकरी करने का अपना निर्णय, तमाम विरोध-प्रतिरोध के बाद भी जारी रखती हैं, लेकिन उनका संघर्ष भी तब दम तोड़ जाता है, जब मातृत्व की जिम्मेदारी उन पर आती है. परिणाम फिर वही, ढाक के तीन पात! महिला फिर वहीं की वहीं, आर्थिक आज़ादी उसकी छिन जाती है और तमाम प्रयासों के बावजूद उसके साथ जो परिस्थिति गुजरी, अपनी बेटी के साथ वह उसी स्थिति की कल्पना करके सिहर जाती है.
आगे सुनिए, प्रधानमंत्री जी!

कुछेक महिलाएं, आर्थिक सशक्तिकरण के लिए मातृत्व के बाद भी संघर्ष जारी रखती हैं और अपने बच्चों को क्रेच या डे-बोर्डिंग के सहारे छोड़ने का रिस्क लेती हैं, और More-books-click-hereपरिणामतः उनके बच्चे माँ-बाप से दूर, कुंठित और अपेक्षाकृत असामाजिक निकलते हैं. अपने आप में यह आंकड़े भयानक हैं कि अपने आर्थिक एवं कार्य की स्वतंत्रता के लिए ज़िद्द करती महिलाओं का अपने परिवार से तालमेल नहीं हो पाता है और फिर समाज में तलाक जैसी विकृति फैलती है. इन महिलाओं से अलग कुछ और महिलाएं जो सक्षम होती हैं, वह तो बच्चे ही पैदा नहीं करना चाहतीं. अब मैं पुनः मूल प्रश्न पर आता हूँ. ऐसी परिस्थिति में 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' अभियान किस प्रकार से महिलाओं से संवाद स्थापित करने में सक्षम हो पायेगा? संवाद वही कर सकता है जो सक्षम हो और महिलाओं को हम कुछ हद तक साक्षर बना पाने में बेशक कामयाब हुए हैं, किन्तु उनकी सक्षमता पर स्थिति आज़ादी के 67 सालों बाद भी कुछ ख़ास नहीं बदली है. यही कारण है कि संवाद, जागरूकता के तमाम प्रयास सिर्फ कागजी ही रह जाते हैं.

इस वस्तुस्थिति में तस्वीर बेहद डरावनी नजर आती है. क्या वक्त की यह मांग नहीं है कि बेटियों की भलाई के लिए, उनकी माताओं को आर्थिक रूप से सक्षम एवं स्वतंत्र बनाया जाय? क्या समय यह नहीं कहता है कि पढ़ी-लिखी लड़कियों को रोजगार की भरपूर संभावनाएं मिलें? क्या महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की यह जिम्मेवारी नहीं है कि वह बदलते समय के अनुरूप, बेहतर पारिवारिक माहौल के लिए शोध पर जोर दे, पारिवारिक क्षेत्रों में सक्रीय गैर-सरकारी संस्थाओं, भारतीय संयुक्त-परिवारों से तालमेल करे? क्या महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए घरेलु उद्योगों के विकास की संभावनाएं मौजूद हैं? यदि नहीं, तो कौन जिम्मेदार है? क्या घर से बाहर निकलती महिलाओं को सुरक्षा है? किसी प्रकार की पीड़ा अथवा हादसा होने पर हमारा तंत्र उस लड़की के साथ कितना सहयोगात्मक रहता है?

यदि इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढ लिए जाते हैं, तो यकीन मानिये, स्त्री और महिला आधारित हमारा समाज कई प्रश्नों के उत्तर स्वतः पा जायेगा. अब हालात बदले हैं, और देश के नागरिक इस बात के प्रति जिम्मेवार नजर आते हैं. वह अपने बच्चों को, बच्चियों को बचाना चाहते हैं, पढ़ना चाहते हैं  लेकिन उसके बाद क्या? देश की नयी सरकार की इस योजना में स्पष्ट रूप से उथलापन दीखता है और कागजी खानापूर्ति ज्यादा नजर आती है. सच कहा जाय तो यह 80 के दशक की योजना लगती है, क्योंकि अब समाज की समस्याएं अलग हैं और वर्तमान में महिलाओं की, बेटियों की समस्याओं का समाधान तो छोड़िये, इस योजना में उन समस्याओं का ज़िक्र भी नहीं दीखता है. गणतंत्र दिवस की बेला पर देशवासी इस प्रश्न पर जरूर विचार करें और अपने विचारों से जागरूकता फ़ैलाने का निर्णय करें तो सरकार और उसके नौकरशाह भी कागजी खानापूर्ति से जरूर बचेंगे जिसका परिणाम निश्चित रूप से यथार्थ पर आधारित होगा, न कि योजना के नाम पर पुरानी फाइल को कॉपी-पेस्ट कर दिया जायेगा.

-मिथिलेश कुमार सिंह

Girls, Women, their current challenges and Government Plan

Beti-bachao-beti-padhao-launch-planning

Keyword: government planning, yojna, modi, beti bachao beti padhao, mahila evam bal vikas mantralay, speech of modi, madhuri dixit brand ambassador, half plan,  bureaucracy, bureaucrat,  Official,  officeholder,  office bearer,  officer, administrative, official, women survival, child education, girls education, family, Indian family structure, plan, middle class family, old plan, 80s, youth, family research, shodh, daughter, girl child issues.

No comments:

Post a Comment

Labels

Tags