Friday 9 January 2015

एक और गणतंत्र-दिवस! - Republic Day

लो एक बार फिर आ गया गणतंत्र दिवस. गुलामी के एक लम्बे दौर से मुक्ति के बाद जब 1947 में हमें आजादी मिली, लेकिन उन गुलामी के अंग्रेजीयत कानूनों और परम्पराओं से असली मुक्ति हमें २६ जनवरी १९५० को मिली जब प्रचलित कानूनों को ताक पर रखकर हमें अपने कानून और अपनी परम्पराओं को मानने का हक़ हमारे संविधान ने दिया. इससे पहले ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935’ हमारे देश में लागू था. यह भारतवर्ष के तीन महान राष्ट्रीय पर्वों में से एक है, जबकि बाकि दो पर्व स्वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती हैं. गणतंत्र दिवस का असली और शाब्दिक मकसद यही है कि जनता का जनता के द्वारा शासन शुरू होने की घोषणा का दिवस. अब जबकि देश 65वां गणतंत्र दिवस मना रहा है तब इस बात की चर्चा होनी लाजमी है कि यह अपने वास्तविक अर्थ को प्राप्त हुआ है अथवा नहीं. Republic of India (book)

पिछली बार की 26 जनवरी बड़ी चर्चित हुई थी, क्योंकि जनता का सर्वाधिक समर्थन और सानिध्य प्राप्त करने का दावा करने वाले एक नए राजनीतिक दल के शीर्ष नेता ने इस महत्वपूर्ण अवसर को जनता का अवसर मानने से सार्वजनिक रूप से इंकार कर दिया था. हालाँकि वह व्यक्ति तब महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर विराजमान था, परन्तु इसके बावजूद उसने गणतंत्र दिवस के अवसर को वीआईपी, यानि विशिष्ट व्यक्तियों के मनोरंजन का अवसर करार दिया था. जी हाँ! हम बात कर रहे हैं दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की. खैर, इस बात की चहुंओर आलोचना होनी भी चाहिए थी और हुई भी, परन्तु यह प्रश्न निश्चित रूप से आन खड़ा हुआ है कि क्या वाकई हमारा देश गणतंत्र के अपने मकसद को पाने में कामयाब हो गया है अथवा वास्तव में कहीं भारी गड़बड़ हुई है. अब देश में जनता के पूर्ण बहुमत से आयी लोकप्रिय सरकार है, जिसने न सिर्फ लोकसभा बल्कि कई विधानसभा के चुनावों में भी अपना परचम फहराया है. इस नयी सरकार ने जनधन योजना, श्रमेव जयते योजना, सफाई अभियान जैसी कई बड़ी योजनाएं लागू की हैं, और कुछ हद तक ही सही, इसका कार्यान्वयन भी सुनिश्चित किया है. हालाँकि इस बार गणतंत्र दिवस से पहले कुछ सकारात्मक तस्वीरें जरूर दिखी हैं. प्रतीकात्मक ही सही, विदेश नीति पर भारत की उपस्थिति दिखी है, तो अमेरिका जैसे महाशक्तिशाली देश के राष्ट्रपति बराक ओबामा इस गणतंत्र दिवस पर न चाहते हुए भी मेहमान बन रहे हैं. हालाँकि उनके आने से पहले मीडिया में दिल्ली की प्रदूषित हवा से लेकर उनकी सुरक्षा तक पर तमाम समाचार आ रहे हैं, जो भारत की प्रतिष्ठा के लिए सकारात्मक तो नहीं ही हैं. हालाँकि इस तरह की खबरें राजनयिक स्तर पर चली गई चालें भी होती हैं. किन्तु इन्हें सामान्य रूप में ही लिया जाना चाहिए. इस क्रम में यदि हालातों को परत दर परत उधेड़ा जाए और कश्मीर से कन्याकुमारी तक रह रहे भारतीय नागरिकों के जीवन स्तर पर दृष्टिपात किया जाए तो यह बात साफ़ हो जाती है कि हमारा देश गणतांत्रिक होने के बावजूद अपने मकसद से अभी भी कोसो दूर है. जिस संविधान के लागू होने के बाद हमारा देश गणतंत्र बना, उसी संविधान के मूल अधिकार देश की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी की पहुँच से दूर है. समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार एवं संवैधानिक उपचारों के अधिकार में हमें कहीं भी एकरूपता नजर नहीं आती है.

एक तरफ देश में एक बड़ा धनाढ्य वर्ग है, जिसने देश की 80 फीसदी से ज्यादा पूंजी पर एक तरह से कब्ज़ा कर रखा है और दूसरी तरह शोषित मध्यम और गरीब वर्ग है, जिसकी संख्या 85 फीसदी से ज्यादा होने के बावजूद देश के संशाधनों पर उनका कोई हक़ ही नहीं है. हाँ, इस बात को कहने में हमें कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि यह एक बड़ा वर्ग अभी भी वास्तविक अर्थों में गुलामी से मुक्त नहीं हुआ है. स्वतंत्रता, शोषण की खिलाफत, शिक्षा जैसे अधिकार इनके लिए बेमतलब हैं. हाँ, पांच साल पर इनके पास वोट देने का अधिकार जरूर है. लेकिन वह भी बेचना इनकी मजबूरी बन जाता है. जब इनके घर में पैसे की किल्लत होती है, तब काफी कुछ समझते हुए भी यह चंद सिक्कों की खनक में अपने वोट क्यों न बेच दें, इसका तर्क ढूंढे नहीं मिलता है. आत्महत्या करते किसान, पैसे की किल्लत में पढ़ाई छोड़ते युवा और पढ़-लिख कर डिग्री हासिल करने के बावजूद नौकरी के लिए दर-दर भटकता देश का भविष्य. क्या यही वह तस्वीरें हैं, जिन्हें देखने की कल्पना हमारे पुरखों ने की होगी.

कुछ आत्ममुग्ध एवं कमरे में बैठने वाले चिंतक जरूर तर्क देंगे कि देश में परमाणु बम हैं, बड़ी-बड़ी मिसाइलें हैं, अंतरिक्ष तकनीक है, सूचना Article_in_Hindi_on_Republic_Day_26_January_by_Mithilesh_Indian_Flagप्रोद्योगिकी है, क्रिकेट में सचिन और धोनी जैसे खिलाड़ी हैं, सिनेमा में हृतीक और सलमान हैं, राजनीति में मोदी, राहुल और केजरीवाल हैं, अर्थशास्त्र में अमर्त्य सेन और नए बने नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया हैं, शांति के क्षेत्र में कैलाश सत्यार्थी हैं, परन्तु हाय रे दुर्भाग्य! इनमें से कुछ भी, कुछ भी तो ऐसा नहीं है जिसे गणतंत्र दिवस की सार्थकता के रूप में पेश किया जा सके. गरीबी-अमीरी, खुशहाली-दुर्दिन, शांति-अराजकता के बीच इस तरह की उपलब्धियां मात्र छलावा प्रतीत होती हैं, मानो अपने दुःख से परेशान होकर गांव का कोई दुखिया शाम को नौटंकी देखने जाता है. नौटंकी के दो-चार घंटे वह अपने दुःख जरूर भूल जाता है, परन्तु फिर जब वह सुबह सोकर उठता है, तो वही खाने की समस्या, बीमार पत्नी की दवा की समस्या और उसकी बेटी के स्कूल जाने की समस्या. कहाँ है गणतंत्र ? आज यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए, उन ठेकेदारों से, जो देश की ठेकेदारी पर ताल ठोंकते रहे हैं. आज यह प्रश्न लाजमी है क्योंकि आज 65 साल होने को आये हैं अपने सैद्धांतिक गणतंत्र होने के. परन्तु यह व्यवहारिक गणतंत्र कब आएगा, इस बात का जवाब शायद किसी तंत्र के पास नहीं है. आपके पास भी नहीं और हमारे पास भी नहीं. तो आइये, हम लोकतंत्र के उसी दुखिया की तरह दो-चार घंटे आनंद ले लें, क्योंकि मात्र एक दिन बाद हम फिर उन्हीं प्रश्नों तले दबे होंगे, जो प्रश्न पिछले 65 साल से करोङो भारतीयों को दबाये हुए हैं. जय हो गणतंत्र, जय हो जनतंत्र, जय हो गणतंत्र!

मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Republic day article by mithilesh.

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