Sunday 18 January 2015

चाँद पर जाने की तमन्ना... Migrant Duties to their Homeland, in Hindi.

प्रवासियों की निष्ठा पर प्रश्न उठना कोई नई बात नहीं है. कोई उनको अपनी छोड़ी गयी ज़मीन के प्रति गद्दार बताता है तो जिस नयी ज़मीन पर वह गए हैं, वहां उन्हें अपना नहीं माना जाता है. थोड़ा पीछे जाएँ तो भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के समय जो मुसलमान भारत में अपना सब कुछ छोड़कर भी पाकिस्तान चले गए हैं, उनको भी वहां कई दशक बीत जाने के बाद भी 'मुहाजिर' ही कहा जाता है. कुछ ऐसी ही स्थितियों पर आधारित अमेरिकन राजनीतिज्ञ बॉबी जिंदल का बयान आया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि वह सिर्फ अमेरिकी हैं, 'भारतीय-अमेरिकी' नहीं! आगे जोड़ते हुए उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि उनके माता-पिता 40 साल पहले अमेरिका में अमेरिकी बनने गए थे! खैर, यह एक राजनेता का राजनीतिक बयान कह कर तत्काल खारिज किया जा सकता है, लेकिन इस बीच इस प्रश्न की जड़ तक पहुंचा जाना जरूरी है की प्रवासियों की इच्छा और मजबूरी का आधार क्या है और वास्तव में उनके कर्त्तव्य और निष्ठा की कसौटी क्या है.
पिछले दिनों से यह बड़ा घातक ट्रेंड सामने आया है, जब देश के तमाम उच्च प्रशिक्षण संस्थाओं से सक्षम प्रतिभाएं प्रशिक्षित होकर 'एनआरआई' बनने का सपना मन में पाल लेती हैं. कोई युवक गाँव के किसी गरीब, मजदूर माँ-बाप की मेहनत पर सवार होकर इन संस्थाओं तक पहुँचता है तो अधिकांश युवकों पर भारत सरकार अपने संसाधनों को बेतहासा खर्च करती है, ताकि यह प्रतिभाएं देश की सेवा कर सकें. फीस तो इन संस्थाओं में इनके खर्च की दस फीसदी भी नहीं होती है और यदि इन संस्थाओं के स्तर की बात करें तो इनमें पढ़ने वाले युवकों, युवतियों को लगभग मुफ्त शिक्षा और प्रशिक्षण मिल जाता है. उसके बाद यह प्रतिभाएं देश की कितनी सेवा करती हैं, या करनी चाहिए, यह बॉबी जिंदल ने अपने बयान में बता दिया है. उनका यह बयान अभी बेशक भारत-विरोध जैसा लगे, किन्तु यह एक सच्चाई है. आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी और ऐसे ही अनेक समकक्ष संस्थान देश की प्रतिभाओं को देश के लिए नहीं अमेरिका या दुसरे ऐसे ही देशों के लिए प्रशिक्षित करती हैं. बीच में इसी मुद्दे को लेकर इन संस्थाओं में पढ़ने वालों पर निश्चित अवधि के लिए 'अनुबंध' साईन करने की बात भी कही-सुनी गई.
महात्मा गांधी ने अपने एक कथन में कहा है कि देश में जब तक गाँवों का विकास नहीं होता, तब तक देश का विकास संभव नहीं. 'गाँवों की ओर लौटो', बहुत पुराना, मशहूर नारा है. यह सिर्फ एनआरआई के लिए ही बात हो, ऐसा नहीं है, बल्कि हमारे देश में भी जो अंधाधुंध शहरीकरण हो रहा है, कहीं न कहीं इसी प्रवास की समस्या से जुड़ा हुआ विषय है. इसी विषय से जुड़ा हुआ एक वाकया बताता हूँ. गाँव में किसी गरीब परिवार की हाड़तोड़ मेहनत, मजदूरी से एक महाशय भारतीय फ़ौज में 'कर्नल' रैंक तक पहुँच गए. अफसर ग्रेड अपने आप में एक अलग, उच्च ओहदा होता है. उन्होंने गाँव जाना लगभग छोड़ ही दिया. अपने पिता के अंतिम-संस्कार में भी बिचारे जैसे-तैसे गाँव पहुंचे, क्योंकि गाँव तक ट्रेन, फ्लाइट की सुविधा तो छोड़ ही दीजिये, सड़क और उस पर चलने वाले लोकल साधन भी माशा अल्लाह ही थे. क्रिया-कर्म में हफ्ते भर से ज्यादा समय लगता है BobbyJindal-Governor-louisiana-indian-american-politician-statement-reactionऔर इस दौरान वह बिचारे गाँव में आने के बारे में अपने कष्ट का रोना रोते रहे. उनके ही परिवार के किसी लड़के ने उनसे कहा कि चाचाजी! मैंने भी बीए पास कर लिया है, आप मेरी नौकरी भी कहीं फ़ौज में लगवा दीजिये. वह कटाक्ष करते हुए बोले कि 'बीए'. देश में लाखों इंजिनियर डिग्री लेकर बेकार घूम रहे हैं और तुम गंवार, बीए पास करके नौकरी पाने की बात कर रहे हो. तुम गाँव के पिछड़े लोग, किसी काम को इतना आसान कैसे समझ लेते हो? तुम्हें पता है नौकरी पाने की खातिर क्या-क्या करना पड़ता है? अंग्रेजी फर्राटेदार होनी चाहिए, बॉडी लैंगुएज पॉजिटिव होनी चाहिए, एटीकेट, एटीट्यूड ... और भी जाने वह क्या-क्या कहते रहे. वह तो शायद रूकते ही नहीं, लेकिन उस बीए पास लड़के की आँखों में आंसू आ गए और वह घर के अंदर चला गया. गाँव के एक बुजुर्ग ने कर्नल साहब को टोकते हुए कहा कि बेटा! आज तो तुम शहर के हो गए, लेकिन वह दिन तुम भूल गए जब तुम्हारी नाक बहती थी और तुम फटी हुई पैंट पहनकर स्कूल जाते थे. जिसको तुमने गांव का गंवार कहा, उसी के घर से तुम्हारी माँ आटा मांग कर लाती थी और तुम उसकी रोटी खाकर स्कूल जाते थे. लेकिन, तुमने तो गाँव और समाज का कर्ज तो एक झटके में उतार दिया! यह सुनना भर था कि कर्नल साहब, आत्मग्लानि की बजाय और भड़क गए, कहा- काका! तुम्हारे जैसी सोच रहती तो आज इंसान चाँद पर नहीं पहुँच सकता था. और फिर उसके बाद कर्नल साहब गाँव में फिर कभी दिखे नहीं. इस वाकये को आप सच मान सकते हैं. हमारे आस-पास नजर दौड़ाने पर एनआरआई के सन्दर्भ में ही नहीं, बल्कि देश में भी 'क्रीमी-लेयर' कुछ ऐसा ही करती नजर आती है. बड़े अधिकारी, आईएएस, आईपीएस, पीसीएस या किसी मल्टीनेशनल में काम करता टॉप-एक्सिक्यूटिव में से अधिकांश गाँव से उठे हुए व्यक्ति हैं. उनकी माँ ने इनकी पढ़ाई की खातिर अन्य सहोदरों की अपेक्षा थोड़ा ज्यादा दूध पिलाया होगा और बाप ने दुसरे भाइयों-बहनों के मुकाबले किताबें पहले दिलाई होंगी. उन माँ-बाप को शायद यह उम्मीद रही होगी कि एक लड़का बड़ा अफसर बन गया तो दुसरे भाइयों-बहनों के हित की भी चिंता करेगा. उन्हें कतई आभास नहीं रहा होगा कि गाँव और भाई-बहनों की कौन पूछे, वह माँ - बाप को लात मार देगा.

माँ के प्रश्न पर ही एक एनआरआई महोदय हम पर बिगड़ गए. हुआ यूं कि वह दिल्ली में किसी की शादी में शरीक होने आये थे. दिल्ली की एक मंदिर-रुपी संस्था है और वहां लड़के- लड़कियों से हिंदी में शादी की एप्लीकेशन लिखवाई जाती है. खैर! उनका अपना रूल है. इस हिंदी के प्रश्न पर वह सहज नहीं रह सके और भारतीयों के पिछड़ेपन की चर्चा छेड़ दी. अपनी मुंहफट आदत के कारण मैं चुप न रह सका और उनसे सीधा प्रश्न कर बैठा कि आपकी माँ जीवित हैं?More-books-click-here
उन्होंने कहा- हाँ!
मैंने फिर पूछा- कहाँ हैं वह?
उन्होंने कहाँ- गाँव में?
मैंने कहा- उनकी देखभाल कौन करता है ? उन्होंने कहा, नौकर रखने के लिए कहा था, लेकिन माँ ने मना कर दिया. मेरी आँखों को घूरता पाकर, उन्होंने फिर कहा- मैंने माँ से अपने साथ विदेश चलने के लिए कहा, लेकिन उसने खुद मना कर दिया.
उनकी इस बात पर मैंने कठोरता से कहा- माँ को नौकरानी बनाने के लिए आप अमेरिका ले जाना चाहते थे?
अब तक वह सकपका चुके थे. बात बढ़ती, उससे पहले ही मंडप में उनको बुलाने वाले आ गए. फिर अगले कुछ घंटों तक वह महोदय उदासी ओढ़कर नजरें चुराते रहे.

आखिर, इन प्रश्नों का जवाब उपरोक्त वर्णित 'कर्नल साहब' या 'जिंदल जैसे एनआरआई' दे सकते हैं क्या? या फिर वह तमाम 'आईआईटीयन' और प्रबंधन के प्रशिक्षित युवा जवाब देंगे, जो पलते यहाँ हैं, संसाधन यहाँ का इस्तेमाल करते हैं और अपनी उत्पादकता किसी और के लिए इस्तेमाल करते हैं? और अभी नरेंद्र मोदी की बहुचर्चित रैली हुई Indian-villagers-BobbyJindal-Governor-louisiana-indian-american-politician-statement-reactionअमेरिका में, मैडिसन स्क्वायर पर. यदि अमेरिका में जिंदल जैसे अमेरिकी ही थे, तो उस रैली में लाखों लोग क्या भारत से गए थे? और फिर दोहरी नागरिकता और वीजा-सम्बन्धी दिक्कतों को दूर करने के लिए मोदी ने तमाम घोषणाएं किसके लिए कीं. न्यूयार्क में किसी सिक्ख अमेरिकी पर ट्रक चढ़ा दिया जाता है, तो उसके लिए भारत सरकार क्यों दबाव बनाये? ऑस्ट्रेलिया में जिंदल जैसे किसी नागरिक पर हमला होता है तो उसके लिए भारत-सरकार पैरवी क्यों करे? सच तो यह है कि मनुष्य, मनुष्य तब तक ही है, जब तक उसमें कर्त्तव्य भाव है और कर्त्तव्य भाव जड़ के वगैर शून्य है. बॉबी जिंदल को ऊपरी तौर पर ही सही अमेरिकी बनने की जल्दी दिखती है, लेकिन अमेरिकियों को इतनी जल्दी नहीं होगी उन्हें अमेरिकी बनाने में. इस पहचान की राजनीति ने मानवता का बहुत नुक्सान किया है. जिंदल जैसे लोग ही हैं, जो इस में उलझे रहते हैं और निष्ठा को राजनीतिक लाभ-हानि के पैमाने पर तोलते हैं. अपनी मिटटी को कोई भी नहीं छोड़ना चाहता है, आर्थिक मजबूरियों, रोजगार की संभावनाओं, बेहतरी के लिए व्यक्ति एक जगह से दूसरी जगह पलायन करता है, लेकिन 80 फीसदी से ज्यादा मामलों में यह अपनी जड़ से जुड़ा हुआ रहता है, क्योंकि नैतिकता यही मांग करती है. यदि कोई एक पीढ़ी अमेरिका चली गयी है तो क्या उसका संस्कार परिवर्तित हो जायेगा? संस्कार उन पत्तियों का नाम है, जो जड़ से खाद-पानी लेती रहती है. यदि जड़ नहीं तो संस्कार कैसा? बॉबी जिंदल तब भारतीय अमेरिकी नहीं होंगे, जब वह अपने इतिहास को मिटा देंगे. अपने पिता का नाम अपने बच्चों को नहीं बताएँगे और अपने नाम से जिंदल टाइटल भी हटा लेंगे. उनकी पत्नी का नाम 'सुप्रिया' है, उसे बदलकर वह कोई क्लाडिया नाम रख लें, क्योंकि यह नाम भी भारतीयता से ही जुड़ा है.

सक्षम होने के बाद अपने गाँव से बेशक कोई 'क्रीमी-लेयर' का व्यक्ति नाता तोड़ ले, या भारत से जाने के बाद कोई एनआरआई भारत से रिश्ता खत्म कर ले, उसे यह बात याद रखनी चाहिए कि उसकी अगली पीढ़ी भी है और बिना जड़ के वह सूख जाएगी. शायद यही कारण है कि शहरों में बड़े लोगों के बच्चे संस्कारविहीन होकर ड्रग, अपराध की शरण migrants-indian-pravasi-economic-conditionsले लेते हैं अथवा निर्ममता से अपने माँ-बाप को छोड़कर अपनी पुरानी निष्ठा को छोड़कर, कोई दूसरी छद्म निष्ठा धारण कर लेते हैं. तब वही माँ-बाप रोते हैं, लेकिन वह भूल जाते हैं कि अपने गाँव, अपने भाइयों और अपने संस्कारों को छोड़कर उन्होंने भी यही किया था. भारत जैसे विकासशील देश और देश के गाँव, जहाँ सक्षम लोगों की इतनी जरूरत है, वहां जिंदल जैसों और 'कर्नल' जैसे लोगों का व्यवहार नैतिक अपराध की श्रेणी में आएगा, क्योंकि उन्होंने किसी और का हक मारकर योग्यता हासिल की है, देश का नमक, जी हाँ! टाटा नमक खाकर देश के साथ, अपने गाँव के साथ गद्दारी की है और तर्क दिया है, खोखली व्यवहारिकता का, चाँद पर जाने के सपने का. किसी शायर ने क्या खूब कहा है-
'चाँद पर जाने की तमन्ना करने वालों,
पहले धरती पर रहना तो सीख लो'.

– मिथिलेश, उत्तम नगर, नई दिल्ली.

Migrant Duties to their Homeland, in Hindi, article by Mithilesh.

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